Saturday 21 January 2012

champaklal guru

                                             योग
जैसे अपने  शरीर में भिन्न भिन्न इन्द्रियोको भिन्न भिन्न कामो में नियुक्त करनेवाला  एक चित्त रहता है ,उसी प्रकार उन बनाये  हुए चित्तोको  भिन्न भिन्न कमोमे नियुक्त करनेवाला संचालक एक चित्त होता है ,जो की योगी का स्वभाविक चित्त .
जन्म ओषधि ,मन्त्र   तप और समाधि इन पाँच कारणों से शरीर ,इन्द्रिय  और चित्त का विलक्ष्ण परिणाम होता है ।
उन पाँच प्रकार से उत्कर्षता को प्राप्त हुए चित्त में से जो चित्त  दयान से उत्पन्न होता है वः कर्म संस्करोसे रहित होता है ,दुसरे जन्म ,औषध आदि के द्वारा विलक्ष्ण   शक्तियुक्त चित्तोमे कर्मोके संस्कार रहते है ,।
शुक्ल कर्म उन कर्मो को कहते है ,जिनका फल सुखभोग होता है और कृष्ण कर्म उनको कहते है ,जो नरक आदि दुखो के कारण है ।
कर्म तिन प्रकार के होते  है 
(१)पुण्यकर्म 
(२)पापकर्म 
(३)शुक्लकृष्ण या पुन्य और पाप मिले कर्म 
योग साधनों के जिनका चित्त शुद्ध नहीं हुआ  है ,उन साधारण मनुष्यों के कर्म संस्कार रूप से अन्तः करणमें    संग्रित रहते है ,अतः उन कर्मो से जो कर्म जिस समय फल -भोग करने के लिए तैयार होता है ,उस समय उस कर्म जैसा फल होनेवाला  है ,वैसा ही वासना उत्पन्न होती है ,अन्य कर्मो के फल भोगने की नहीं ।
यदि कोई कर्म किसी एक जन्म में किया है और कोई कर्म किसी दुसरे जन्म में किया है ,यह उन कर्मो में जन्म का व्यवधान है । इसी तरह भिन्न भिन्न कर्मो में देश और काल का  व्यवधान होता है । इस प्रकार जन्म ,देश और कालका व्यवधान होते हुए भी जिस कर्म का फल प्राप्त होनेवाला है ;उसके अनुसार भोगवासना उत्पन्न होने में कोई अडचन नहीं पड़ती  क्योकि स्मृति और संस्कार ये दोनों एक ही है । जिस कर्म   का उत्पादक कारण आ जाता है ,वैसी ही वासना प्रगट होजाती है ।यदि किसी को पूर्वजन्म के कर्म का फल भोगने के लिए गौकी  योनी मिलनेवाली है .तो उसने गौ की योनी जब कभी पाई है ,उसकी वासना प्रगट हो जाएगी।
भाव यह है की चाहे उस जन्म के बाद दुसरे कितने ही जन्म बीत चुके हो ,कितना  ही समय बीत चूका हो और वः किसी संस्कारो की एकता होने के कारण जो फल मिलता है । उसके अनुकूल भोगवासना यानि स्मृति पैदा हो जाती है । 
    प्रत्येक प्राणीको जीवनकी   इच्छा नित्य बनी रहती है ,मृत्युका   भय तुरंत जन्मे हुए क्षुद्र से क्षुद्र जिवोमे भी देखा जाता है ,इससे पूर्व जन्म की  भय रूप सिद्धि होती है । उस जन्ममे भी मरण भय की व्याप्ति होने से जन्म जन्मान्तर की परम्परा अनादी सिद्ध हो जाती है । अतएव वासनाओ   का अनादीत्व भी अपने -आप  सिद्ध हो जाता है । 
        वासनाओका हेतु अविध्यादी क्लेश और उनके रहते हुए होनेवाले कर्म है । इनका फल पूर्व जन्म ,आयु और भोग है ।आश्रय चित्त है और शब्दादि विषय आलंबन है । वासनाए इनके सम्बन्ध से ही संग्रहित हो रही है । जब योगसधनाओ से इनका आभाव हो जाता है अर्थान्त जब विवेकज्ञान से  अविद्या का नाश हो जाता है  तब कर्मो में फल देने की सामर्थ्य नहीं रहती ,चित्त अपने कारण में  विलीन हो जाता है  उपयुर्क्त साधनों के न रहने से विषयों के साथ पुरुष का सम्बन्ध नहीं होता । इस प्रकार हेतु फल ,आश्रय और आलम्बन इन चारो का आभाव   होने से वासनोका भाव अपने आप हो जाता है अतः योगी का  पुनर्जन्म नहीं होता ।
          वस्तू का वास्तव में आभाव कभी नहीं होता ,वस्तु में धर्म चित्त और वासना आदि  कुछ अनागत स्थिति में रहते है कुछ वर्तमान स्थिति में और कुछ  अतीत स्थिति में  इससे यह नहीं समजना चाहिए की जो वर्तमान है उन्हों की सत्ता है दुसरोकी नहीं क्योकि उनका स्वरूपसे आभाव नहीं होता है । अतीत और अनागत अवस्था  में वे अपने कारणों में रहते है ,व्यक्त नहीं रहते । यह अपने अनागत कारण में विलीन हो जाना ही उनका नाश या आभाव है अतः वे योगी के पुनर्जन्म  में हेतु नहीं बन शकते ।  

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